॥ श्री सुकुमाल जी महामुनिराज ॥
उज्जयिनी के सेठ सुरेन्द्र दत्त और उनकी धर्मपत्नी सेठानी श्रीमती यशोभदा के सुपुत्र का नाम था सुकुमाल.
सुकुमाल यथा नाम तथा गुण थे. वे इतने सुकुमार थे कि उन्हें सरसों का दाना भी चुभता था। सूर्यकिरणों की बात तो दूर उन्हें दीपक का प्रकाश भी सहन नहीं होता था. अत: वे रत्नों के प्रकाश में ही रहते थे.
कमल पुष्पों में पका हुआ चावल ही वे खा और पचा पाते थे. वे इतने सुकुमार थे।
सेठ सुरेन्द्र दत्तजी के दीक्षा लेने के बाद उनकी पत्नी सेठानी श्रीमती यशोभद्रा ने बत्तीस रूपसी कन्याओं के साथ सुकुमाल का विवाह कर दिया था। एक अवधिज्ञानी मुनिराज की भविष्यवाणी थी कि जिस दिन सुकुमाल, मुनियों की वाणी सुनेगा उसी दिन वैरागी हो जायेगा। इसलिए सेठानी ने नगर में मुनियों का प्रवेश निषेध करवा दिया था। लेकिन एक दिन मुनिराज की वाणी सत्य हुई और सुकुमाल वैरागी हो गये।
मुनि बनकर सुकुमाल मुनिराज ध्यान में लीन हुए तभी पूर्वभव की भाभी जिसने क्रोधवश संकल्प किया था कि जिस पैर से आपने मुझे मारा है मैं वही पैर खाऊँगी। वह स्यारनी की पर्याय में अपने बच्चों के साथ वहाँ से निकली तो सुकुमाल मुनिराज को देखकर उसे पूर्व भव का स्मरण हो आया, तब उसने अपने बच्चों के साथ मुनिराज के पैर खाना शुरु किया।
इस उपसर्ग को मुनिराज शांत भाव से सहन करते हुए समाधिस्थ हुए और सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त हुए। अगले भव में मनुष्य भव प्राप्त करके वे मोक्ष सुख को प्राप्त करेंगे।
आप उन्हीं सुकुमाल मुनिराज के दर्शन कर रहे हैं। यह आपका पुण्योदय है।
IIII श्री सुकुमाल स्वामी का अर्घ IIII
वसु द्रव्यमयी शुभ अर्घ चरण समर्पित है
तपोभूमि आकर आज मन मम हर्षित है ।
उज्जैनी के सुकुमाल तप कीना भारी,
दर्शन कर हुए निहाल चरणन बलिहारी II
ॐ ह्रीं श्री सुकुमाल महामुनि चरणेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥जय महामुनि॥
॥जय सुकुमाल मुनि ॥